घर लौटते हुए परिंदो को देखा
तो ये एहसास हुआ
काश ये फितरत
जाने वालों में होती
तेरी ख़ैरियत का ज़िक्र रहता है मेरी दुआओं में,
मसला मोहब्बत का नहीं,
फिक्र का भी है।
इश्क़ इंसान की खास ज़रूरत है मगर
इश्क़ हो जाए किसी से ये जरूरी भी नहीं
हमारे दिल को अभी मुस्तकिल पता ना बना
हमें पता है तेरा दिल इधर लगेगा नहीं
बात करनी थी जरूरी तो हुए है हाजिर
कत्ल करने के इरादे से नहीं आए हैं
नींद भी उड़ जाती है दिलो की महफ़िल में
किसी को भूल कर सो जाना इतना आसान कहां
अब हमें देख के लगता तो नहीं लेकिन
हम कभी उसके पसंदीदा हुआ करते थे
ख़ुशी से दूर तेरे ग़म के पास बैठा हूं
बड़े सुकून से घर में उदास बैठा हूं
हमने दुनिया में इज्ज़त कमाई है
ताल्लुकात तुम जनाजे में देखना
वो लोग किस दर्द से गुजरे होंगे
जिनके हमदर्द अपने वादों से मुकरे होंगे
फुरसत में याद करते थे वो हमें
हम नादान थे..
उनकी फुरसत को मोहब्बत समझ बैठे
रहने दो, मुझे समझने की कोशिश मत करना,
मेरे किरदार को समझने के लिए दिल चाहिए — और तुम तो दिमाग़ वाले हो।
मुझसे दामन न छुड़ा मुझको बचा के रख ले
मुझसे एक रोज़ तुझे प्यार भी हो सकता है
दे निशानी कोई ऐसी कि सदा याद रहे
ज़ख़्म की बात है क्या ज़ख़्म तो भर जाएँगे
लोगों का एहसान है मुझ पर और तेरा मैं शुक्र-गुज़ार
तीर-ए-नज़र से तुम ने मारा लाश उठाई लोगों ने
ऐसे हँस हँस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं
मुद्दत के ब’अद आज उसे देख कर ‘मोहसिन’
इक बार दिल तो धड़का मगर फिर सँभल गया
कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे
जो हो चुका है उसी पर यक़ीं नहीं आता
बे पिए ही शराब से नफ़रत
ये जहालत नहीं तो फिर क्या है
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल
देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया
इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम
कुछ इस गुनाह की भी सज़ा है तुम्हारे पास
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
भेज दी तस्वीर अपनी उन को ये लिख कर ‘मोहसिन’
आप की मर्ज़ी है चाहे जिस नज़र से देखिए
मोहब्बत में बिछड़ने का हुनर सब को नहीं आता
किसी को छोड़ना हो तो मुलाक़ातें बड़ी करना
मैं बोलता गया हूँ वो सुनता रहा ख़ामोश
ऐसे भी मेरी हार हुई है कभी कभी
उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे ‘मोहसिन’
लब पे आएगी तो हर बात गिराँ गुज़रेगी
तुम्हें तो आज की शब मेरा क़त्ल करना था
कहाँ चले हो इरादा बदल रहे हो क्या
जान लेता हूँ हर इक चेहरे के पोशीदा नुक़ूश
तुम समझते हो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ
क्या ज़रूरी है कि हर बात तुम्हारी मानूँ
बात अपनी भी कई बार न मानी मैं ने
तुझ से कुछ और त’अल्लुक़ भी ज़रूरी है मेरा
ये मोहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
आज की रात मुझे ख़्वाब में रोता हुआ देख
ज़ख़्म खा कर भी जो दुआएँ दे
कौन उस का मुक़ाबला करेगा
जाने क्या कह रहा था वो मुझ से
मैं ने भी कह दिया कि ख़ुश हूँ मैं
उस ने वा’दा नहीं लिया मुझ से
और कहता है मैं मुकर रहा हूँ
वो जो कल तक हाँ में हाँ करता था मेरी
आज तो वो भी नहीं पर आ गया है
बस इसी उम्मीद पे होता गया बर्बाद मैं
गर कभी बिखरा तो आ कर तू सँभालेगा मुझे
तू सिर्फ़ मेरी है उस का ग़ुरूर है मुझ को
अगर ये वहम मेरा है तो कोई बात नहीं
कैसे तुम भूल गए हो मुझे आसानी से
इश्क़ में कुछ भी तो आसान नहीं होता है
दिल में तुम हो न जलाओ मिरे दिल को देखो
मेरा नुक़सान नहीं अपना ज़ियाँ कीजिएगा
क्यूँ न रुक रुक के आए दम मेरा
तुझ को देखा रुका रुका मैं ने
कुछ तुम्हें तर्स-ए-ख़ुदा भी है ख़ुदा की वास्ते
ले चलो मुझ को मुसलमानो उसी काफ़िर के पास
क्यूँ तू रोता है दिला आने दे रोज़-ए-वस्ल को
इस क़दर छेड़ूँगा उन को वो भी रो कर जाएँगे
गाली के सिवा हाथ भी चलता है अब उन का
हर रोज़ नई होती है बेदाद की सूरत
ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएँ
वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ
तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से
लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता
मोहब्बत मर गई ‘मोहसिन’ लेकिन तुम न मानोगे
मैं ये अफ़्वाह भी तुम को सुना कर देख लेता हूँ
रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
किसी के दर्द को इस दिल में कितने साल पालेगा
वो तेरी भी तो पहली मोहब्बत न थी ‘मोहसिन’
फिर क्या हुआ अगर वो भी हरजाई बन गया
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
हैरत है तुम को देख के मस्जिद में ऐ ‘मोहसिन’
क्या बात हो गई जो ख़ुदा याद आ गया
हाथ उठता नहीं है दिल से ‘मोहसिन’
हम उन्हें किस तरह सलाम करें
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा
कुछ खटकता तो है पहलू में मेरे रह रह कर
अब ख़ुदा जाने तेरी याद है या दिल मेरा
हाए रे मजबूरियाँ महरूमियाँ नाकामियाँ
इश्क़ आख़िर इश्क़ है तुम क्या करो हम क्या करें
मोहब्बत में हम तो जिए हैं जिएँगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मैं तो जब मानूँ मेरा तौबा के बाद
कर के मजबूर पिला दे साक़ी
ख़र्च चलेगा अब मेरा किस के हिसाब में भला
सब के लिए बहुत हूँ मैं अपने लिए ज़रा नहीं
सब मेरे बग़ैर मुतमइन हैं
मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई
कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ’त नहीं मिलती
मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे
वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी
ढूँडता फिरता हूँ मैं ‘मोहसिन’ अपने आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मेरा इंतिज़ार देख
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम ‘मोहसिन’
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
क्यूँ न ऐ शख़्स तुझे हाथ लगा कर देखूँ
तू मेरे वहम से बढ़ कर भी तो हो सकता है
मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
तुम तो कहते थे कि इस काम में घर लगता है
तू भी ऐ शख़्स कहाँ तक मुझे बर्दाश्त करे
बार बार एक ही चेहरा नहीं देखा जाता
बोलता हूँ तो मेरे होंट झुलस जाते हैं
उस को ये बात बताने में बड़ी देर लगी
एक मोहब्बत और वो भी नाकाम मोहब्बत
लेकिन इस से काम चलाया जा सकता है
चाँद-चेहरे मुझे अच्छे तो बहुत लगते हैं
इश्क़ मैं उस से करूँगा जिसे मोहब्बत आए
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई ‘मोहसिन’
मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है
बस जान गया मैं तेरी पहचान यही है
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता
जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव रखा तो ज़मीन चलने लगी
लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा
तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख
आप आए हैं हाल पूछा है
हम ने ऐसे भी ख़्वाब देखे हैं
ग़म तो बस इतना है कि तुम्हें इल्म तक नहीं,
इस दिल ने तुम्हें कितने हक़ दे रखे हैं ।
अब और सवाल नहीं किए जाएंगे उससे,
उसने जवाब ना देकर सब जवाब दे दिए।
मोहब्बत है तुमसे बना ले मुझे अपना,
कहीं बहक ना जाऊं किसी की सुंदर बातों में ,
अगर कुछ खिला पिला कर मुझे क़ैद कर लिया तो ।
भूलने को सोचा उन्हें पर भूल कहा पा रहे है,
हवाओं में उनकी खुशबू फैली हुई है,
अब क्या सांस लेना छोड़ दे ।
मुझे पढ़कर अब इन लोगो को मुझसे हमदर्दी होती है,
मोहब्बत तुमसे की है हमने हम पर कुछ तो तरस खाया करो ।